श्रीमद भगवत गीता सार- अध्याय 7 | Geeta Saar in Hindi | Bhagwat Geeta Saar Chapter 7
का आचरण करने वाले जिन पुरुषों
का पाप नष्ट हो गया है वे राग
स्थित तथा आगे होने वाले सब
भूतों को मैं जानता हूँ परंतु
चुका है वे लोग अपने स्वभाव से
प्रेरित होकर उस उस नियम को धारण
से जानने वाले ज्ञानी को मैं
अत्यंत प्रिय हूँ और वह ज्ञानी
सबके प्रत्यक्ष नहीं होता इसलिए
यह अज्ञानी जनसमुदाय मुझे जन्म
प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त
चाहे जैसे ही भजे अंत में वे
उस देवता से मेरे द्वारा ही
विधान किए हुए उन इच्छित भोगों
मुझमें नहीं हैं गुणों के कार्य
रूप सात्विक राजस और तामस इन
मेरा स्वरूप ही है ऐसा मत है
क्योंकि वह मदगत मन बुद्धि वाला
सामर्थ्य हूँ और सब भूतों में
धर्म के अनुकूल अर्थात शास्त्र
माया को उल्लंघन कर जाते है
अर्थात संसार से तर जाते है माया
मैं मानों की बुद्धि और
तेजस्वीयों का तेज हूँ हे भरत
कारण हूँ हे धनंजय मुझसे भिन्न
दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है
यह संपूर्ण जगत सूत्र में सूत्र
के मनियों के सदृश्य मुझ में
पुरुषों में पुरुषत्व हूँ मैं
पृथ्वी में पवित्र गंध और अग्नि
मुझको तत्व से अर्थात यथार्थ रूप
से जानता है पृथ्वी जय अग्नि
परम भाव को ना जानते हुए मन
इन्द्रियों से परे मुझ
युक्त चित्त वाले पुरुष मुझे
जानते है अर्थात प्राप्त हो जाते
को निह संदेह प्राप्त करता है
परंतु उन अल्प बुद्धि वालों का
हज़ारों मनुष्यों में कोई एक
मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता
कर्म को जानते है जो पुरुष
अधिभूत और अधिदेव के सहित तथा
वह पुरुष उस श्रद्धा से युक्त
होकर उस देवता पूजन करता है और
प्राप्त हो रहे हैं परंतु
निष्काम भाव से श्रेष्ठ कर्मों
सब प्रकार से भजते हैं जो मेरे
शरण होकर जरा और मरण से छूटने के
भाव को प्राप्त हुआ मानते हैं
अपनी योग माया से छिपा हुआ मैं
अधि यज्ञ के सहित सबका आत्मरूप
मुझे अंतकाल में भी जानते है वे
लिए यत्न करते हैं वे पुरुष उस
Brahma को संपूर्ण को संपूर्ण
Bharatwanshi Arjuna संसार में
इच्छा और द्वेष से उत्पन्न सुख
वह फल नाशवान है तथा वे देवताओं
को पूजने वाले देवताओं को
दुख आदि द्वंद्व रूप मोह से
संपूर्ण प्राणी अत्यंत को
मुझको कोई भी श्रद्धा भक्ति रहित
पुरुष नहीं जानता हे
मुझको ही प्राप्त होते हैं
बुद्धिहीन मेरे अनुत्तम अविनाशी
रहित अविनाशी परमेश्वर को नहीं
जानता अर्थात मुझको जन्म ने मरने
भक्त की श्रद्धा को मैं उसी
देवता के प्रति स्थिर करता हूँ
सच्चिदानंद धन परमात्मा को
मनुष्य की भांति जन्मकर व्यक्ति है
करके अन्य देवताओं को भजते हैं
अर्थात पूजते हैं जो जो सकाम
द्वेष जनित द्वंद्व रूप मोह से
मुक्त दृढ़ निश्चयी भक्त मुझको
भक्त जिस जिस देवता के स्वरूप को
श्रद्धा से पूजना चाहता है उस उस
वाला समझता है हे Arjuna पूर्व
में व्यतीत हुए और वर्तमान में
अत्यंत दुर्लभ है उन उन भोगों की
कामना द्वारा जिनका ज्ञान जा
ज्ञानी भक्त अति उत्तम गति
स्वरूप मुझमें ही अच्छी प्रकार
प्रेम भक्ति वाला ज्ञानी भक्त
अति उत्तम है क्योंकि मुझको तत्व
पुरुष सब कुछ वासुदेव ही है इस
प्रकार मुझको भजता है वह महात्मा
मुझे अत्यंत प्रिय है ये सभी
उदार है परंतु ज्ञानी तो साक्षात
स्थित है बहुत जन्मों के अंत के
जन्म में तत्व ज्ञान को प्राप्त
नहीं भजते हे भरत वंशियों में
श्रेष्ठ Arjuna उत्तम कर्म करने
बड़ी दुष्टर है परंतु जो पुरुष
केवल मुझको निरंतर भजते है वे इस
मुझको भजते हैं उनमें नित्य
मुझमें एक ही भाव से स्थित अनन्य
के द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा
चूका है ऐसे आसुर स्वभाव को धारण
किए हुए मनुष्यों में नीच दूषित
कर्म करने वाले मूल लोग मुझको
जानता क्योंकि यह अलौकिक अर्थात
अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया
होने वाले हैं ऐसा जान परंतु
वास्तव में उनमें मैं और वे
और जो रजोगुण से तथा तमोगुण से
होने वाले भाव है उन सब मुझसे ही
वाले अर्थार्थी आर्थ जिज्ञासु और
ज्ञानी ऐसे चार प्रकार के भक्त
हो रहा है इसीलिए इन तीनों गुणों
से परे मुझ अविनाशी को नहीं
के अनुकूल काम हूँ और भी जो सत्व
गुण से उत्पन्न होने वाले भाव है
श्रेष्ठ मैं बलवानों का आसक्ति
और कामनाओं से रहित बल अर्थात
गुथा हुआ है हे Arjun मैं जल में
रस हूँ चंद्रमा और सूर्य में
संपूर्ण जगत का प्रभाव तथा प्रलय
हूँ अर्थात संपूर्ण जगत का मूल
प्रकाश हूँ संपूर्ण वेदों में
ओंकार हूँ आकाश में शब्द और
भूत इन दोनों प्रकृतियों से ही
उत्पन्न होने वाले हैं और मैं
तीनों प्रकार के भावों से यह
सारा संसार प्राणी समुदाय मोहित
अर्थात चेतन प्रकृति जान हे
Arjuna तू ऐसा समझ कि संपूर्ण
में तेज हूँ तथा संपूर्ण भूतों
में उनका जीवन हूँ और तपस्वियों
जिससे यह संपूर्ण जगत धारण किया
जाता है मेरी जीव रूपा परा
में तप हूँ हे Arjuna तू संपूर्ण
भूतों का सनातन बीज मुझको ही जान
प्रकार से विभाजित मेरी प्रकृति
है यह आठ प्रकार के भेदों वाली
जानकर संसार में फिर और कुछ भी
जानने योग्य शेष नहीं रह जाता
तो अपरा अर्थात मेरी जड़ प्रकृति
है और हे महाबाहु इससे दूसरी को
है और उन यत्न करने वाले योगियों
में भी कोई एक मेरे परायण होकर
वायु आकाश मन बुद्धि और
अहंकार भी इस प्रकार यह आठ
गुणों से युक्त सबके आत्मरूप
मुझको संशय रहित जानेगा उसको सुन
मैं तेरे इस विज्ञान सहित तत्व
ज्ञान को संपूर्णतः कहूँगा जिसको
लगा हुआ तू जिस प्रकार से
संपूर्ण विभूति बल ऐश्वर्य आदि
मुझमें आसक्ति चित्त तथा अनन्य
भाव से मेरे परायण होकर योग में
अतः सप्तमो अध्याय श्री भगवान
बोले हे पार्थ अनन्य प्रेम से