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श्रीमद भगवत गीता सार अध्याय 5 इन हिंदी | श्रीमद्भागवत गीता


श्रीमद्भागवत गीता इन हिंदी अध्याय 5 | Geeta Saar in Hindi | Shrimad Bhagwat Geeta Adhyay 5


रहित दयालु और प्रेमी ऐसा तत्व

से जानकर शांति को प्राप्त होता  


नासिका में विचरने वाले प्राण और

अपान वायु को सम करके जिसकी


पुरुष योगी है और वही सुखी है जो

पुरुष अंतरात्मा में ही सुख वाला


है जो ये इन्द्रिय तथा विषयों के

संयोग से उत्पन्न होने वाले सब


संसार जीत लिया गया है क्योंकि

Sachidanand धन परमात्मा निर्दोष


और सम है इससे वे सच्चिदानंद धन

परमात्मा में ही स्थित है जो  


इच्छा भय और क्रोध से रहित हो

गया है वह सदा ही मुक्त है मेरा  


भक्त मुझको सब यज्ञ और तपों का

भोगने वाला संपूर्ण लोकों के  


है बाहर के विषय भोगों को न

चिंतन करता हुआ बाहर ही निकाल कर


पुरुषों के लिए सब ओर से शांत

परब्रह्म परमात्मा ही परिपूर्ण 


मन निश्चल भाव से परमात्मा में

स्थित है वे ब्रह्म वेदता पुरुष  


वाला है वह सच्चिदानंद धन

परब्रह्म परमात्मा के साथ एक ही  


तदनंतर वह सच्चिदानंद घन

परब्रह्म परमात्मा के ध्यान रूप  


में तथा गौ हाथी और चांडाल में

भी समदर्शी ही होते है जिनका मन  


गया है उनका वह ज्ञान सूर्य के

सदृश्य उस सच्चिदानंद घन

  

के शुभ कर्म को ही ग्रहण करता है

किंतु अज्ञान के द्वारा ज्ञान  


ना कर्म फल के सहयोग की ही रचना

करते है किंतु स्वभाव ही बरत रहा 


है ऐसा सांख्य योग का आचरण करने

वाला पुरुष ना करता हुआ और ना  


भाव को प्राप्त सांख्य योगी शांत

ब्रह्म को प्राप्त होता है जिनके  


चित्त वाले परब्रह्म परमात्मा का

साक्षात्कार किए हुए ज्ञानी  


इंद्रियाँ मन और बुद्धि जीती हुई

है ऐसा जो मोक्ष परायण मुनि  


सब पाप नष्ट हो गए है जिनके सब

संशय ज्ञान के द्वारा निवृत हो

  

से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन

करने में समर्थ जाता है वही


ही हेतु है और आदि अंत वाले

अर्थात अनित्य है इसलिए हे  


मनुष्य शरीर में शरीर का नाश

होने से पहले पहले ही काम क्रोध  


निःसंदेह ऐसा माने कि मैं कुछ भी

नहीं करता हूँ जो पुरुष सब  


और नेत्रों की दृष्टि को भृकुटि

के बीच में स्थित करके तथा 


स्थित है बाहर के विषयों में

आसक्ति रहित अंतःकरण वाला साधक  


ईश्वरों का भी ईश्वर तथा संपूर्ण

भूत प्राणियों का अर्थात स्वार्थ  


पुरुष सच्चिदानंद घन परब्रह्म

परमात्मा में एक ही भाव से नित्य  


आत्मा में स्थित जो ध्यान जनित

सात्विक आनंद है उसको होता है


होकर उद्विग्न ना हो वह स्थिर

बुद्धि संशय रहित ब्रह्म वेदता  


पुरुष प्रिय प्राप्त होकर हर्षित

नहीं हो और अप्रिय को प्राप्त  


गए है और जो पूर्ण प्राणियों के

हित में रथ है और जिनका जीता हुआ  


शांत ब्रह्म को प्राप्त होते है

काम क्रोध से रहित जीते हुए  


ज्ञान के द्वारा पाप रहित होकर

अपुनरावृति को अर्थात परम गति को 


है आत्मा में ही रमण करने वाला

है तथा जो आत्मा में ही ज्ञान


बुद्धि तदरूप हो रही है और

सच्चिदानंद धन परमात्मा में ही


Arjuna बुद्धिमान विवेकी पुरुष

उनमें नहीं रमता जो साधक इस


भोग है यद्यपि विषयी पुरुषों को

सुख रूप भाषते है तो भी दुःख के  


जिनका वह अज्ञान परमात्मा के

तत्व ज्ञान द्वारा नष्ट कर दिया  


समभाव में स्थित है उनके द्वारा

इस जीवित अवस्था में ही संपूर्ण


योग में अभिन्न भाव से स्थित

पुरुष अक्षय आनंद का अनुभव करता


कर्म करते हैं कर्मयोगी कर्मों

के फल का त्याग करके भगवत 


नहीं होता कर्मयोगी ममत्व बुद्धि

रहित केवल इन्द्रिय मन बुद्धि

  

प्रेरणा से फल में आसक्त होकर

बंधता है अंतःकरण जिसके वश में  


करवाता हुआ ही नवद्वारों वाले

शरीर रूप घर में सब कर्मों को मन

  


जिनकी निरंतर एक ही भाव से

स्थिति है ऐसे तत्परायण पुरुष  


है सर्वव्यापी परमेश्वर भी ना

किसी के पाप कर्म को और ना किसी  


ढका हुआ है उसी से सब अज्ञानी

मनुष्य मोहित हो रहे है परंतु

  

परमात्मा को प्रकाशित कर देता है

जिनका मन तदरुप हो रहा है जिनकी


करता है वह पुरुष जल से कमल के

पत्ते की भांति पाप से लिप्त


प्राप्त होते है वे ज्ञानी जन

विद्या और विनय युक्त Brahmin  


भी लिप्त नहीं होता तत्व को

जानने वाला सांख्य योगी तो देखता  


Jitendra एवं विशुद्ध अंतःकरण

वाला है और संपूर्ण प्राणियों का  


रहता है परमेश्वर मनुष्यों के ना

तो कर्तापन की ना कर्मों की और

  

हुआ ग्रहण करता हुआ तथा आँखों

को खोलता और मूँदता हुआ भी सब


से त्याग कर आनंद पूर्वक घन

परमात्मा के स्वरूप में स्थित


योग के बिना संन्यास अर्थात मन

इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने


प्राप्ति रूप शांति को प्राप्त

होता है और सकाम पुरुष कामना की


और शरीर द्वारा भी आसक्ति को

त्याग कर अंतःकरण शुद्धि के लिए

  

कर्मों को परमात्मा में अर्पण

करके और आसक्ति को त्याग कर कर्म  


भगवत स्वरूप को मनन करने वाला

कर्मयोगी पर Brahma परमात्मा को  


से मुक्त हो जाता है पहले बताए

गए संन्यास और कर्म योग को मूर्ख  


गमन करता हुआ सोता हुआ श्वास

लेता हुआ बोलता हुआ त्यागता  


लोग पृथक पृथक फल देने वाले कहते

है ना कि पंडित क्योंकि दोनों  


शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है

जिसका मन अपने वश में है जो  


क्योंकि राग द्वेष आदि वंदों से

रहित पुरुष सुखपूर्वक संसार बंधन  


परम कल्याण के करने वाले हैं

परंतु उन दोनों में से भी कर्म


जो एक मेरे लिए भली भांति

निश्चित कल्याणकारक साधन हो उसको  


आकांक्षा करता है वह कर्मयोगी

सदा संन्यासी ही समझने योग्य है  


अर्जुन जो पुरुष ना किसी से

द्वेष करता है और ना किसी की

संन्यास से कर्मयोग साधन में


सुगम होने से श्रेष्ठ है हे

की और फिर कर्म योग की प्रशंसा


करते हैं इसलिए इन दोनों में से

में एक देखता है वही यथार्थ


देखता है परंतु हे Arjuna कर्म

हुआ सुनता हुआ स्पर्श करता


हुआ सूंघता हुआ भोजन करता हुआ

किया जाता है इसलिए जो पुरुष


ज्ञान योग और कर्म योग को फल रूप

इन्द्रियाँ अपने अपने अर्थों में


बरत रही हैं इस प्रकार कर

आत्मरूप परमात्मा ही जिसका आत्मा


है ऐसा कर्म योगी कर्म करता हुआ

वाले संपूर्ण कर्मों में करता पन


त्याग प्राप्त होना कठिन है और

प्राप्त किया जाता है कर्म


योगियों द्वारा भी वही प्राप्त

परमात्मा को प्राप्त होता है


ज्ञान योगियों द्वारा जो परमधाम

अर्थ है पंचमोध्याय अर्जुन बोले


हे कृष्ण आप कर्मों के संन्यास

में से एक में भी सम्यक प्रकार


से स्थित पुरुष दोनों के फल रूप

कहिए श्री भगवान बोले कर्म


संन्यास और कर्मयोग ये दोनों ही है 

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