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श्रीमद भगवत गीता सार | अध्याय 2 | हिंदी में | गीता सार इन हिंदी

श्रीमद भगवत गीता द्वितीय अध्याय | Bhagwat Geeta Saar in Hindi


पुरुष में निश्चयात्मिका बुद्धि
नहीं होती और उस अयुक्त मनुष्य

 
इसके संपूर्ण दुखों का अभाव हो
जाता है और उस प्रसन्न चित्त

 
वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र
ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा

 
हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति
से गिर जाता है परंतु अपने अधीन

 
बुद्धि अर्थात ज्ञान शक्ति का
नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश

 
भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता
है स्मृति में भ्रम हो जाने से

 
वाले पुरुष के भी केवल विषय तो
निवृत हो जाते हैं परंतु उनमें

 
है तथा जिसके राग भय और क्रोध
नष्ट हो गए है ऐसा मुनि स्थिर

 
ब्रह्मी स्थिति में स्थित होकर
ब्रह्मानंद को प्राप्त हो जाता

 
हे Arjuna यह Brahma को प्राप्त
हुए पुरुष की स्थिति है इसको

 
प्राप्त होकर योगी कभी मोहित
नहीं होता और अंतकाल में भी इस

 
है वह शांति को प्राप्त होता है
अर्थात वह शांति को प्राप्त है


को त्याग कर ममता रहित अहंकार
रहित और स्प्रहा रहित हुआ विचरता


परमात्मा तत्व को जानने वाले
मुनि के लिए वह रात्रि के समान


होता है भोगों को चाहने वाला
नहीं जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं


परमानंद की प्राप्ति में स्थित
प्रज्ञा योगी जानता है और जिस

से सब प्रकार निग्रह की हुई है
उसी की बुद्धि स्थिर है संपूर्ण


समुद्र में उसको विचलित ना करते
हुए ही समा जाते है वैसे ही सब


भोग जिस स्थिति प्रज्ञा पुरुष
में किसी प्रकार का विकार


उत्पन्न किए बिना ही समा जाते है
वही पुरुष परम शांति को प्राप्त


है जैसे नाना नदियों के जल सब ओर
से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले


नाशवान सांसारिक सुख की प्राप्ति
में सब प्राणी जागते हैं


प्राणियों के लिए जो रात्रि के
समान है उस नित्य ज्ञान स्वरूप


रहता है वह एक ही इस अयुक्त
पुरुष की बुद्धि को हर लेती है


इसलिए हे महाबाहु जिस पुरुष की
इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों


विषयों में विचरती हुई इंद्रियों
में से मन जिस इंद्रिय के साथ


की कामना उत्पन्न होती है और
कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध


इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा
लेता है तब उसकी बुद्धि स्थिर है


क्योंकि जैसे जल में चलने वाली
नाव को वायु हर लेती है वैसे ही


तो आसक्ति भी परमात्मा का
साक्षात्कार करके निवृत्त हो


को जैसे समेट लेता है वैसे ही जब
यह पुरुष इंद्रियों के विषयों से


के अंतःकरण में भावना भी नहीं
होती तथा भावनाहीन मनुष्य को


शांति नहीं मिलती और शांति रहित
मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है


में ही भली भांति स्थिर हो जाती
है ना हुए मन और इंद्रियों वाले


शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त
होकर ना प्रसन्न होता है और ना


है उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती
है विषयों का चिंतन करने वाले


प्रसन्नता को प्राप्त होता है
अंतःकरण की प्रसन्नता होने पर


इन्द्रियों को वश में करके
समाहित चित हुआ मेरे परायण होकर

जाती है हे Arjuna आसक्ति का नाश
ना होने के कारण ये प्रमथन

इंद्रियों द्वारा विषयों में
विचरण करता हुआ अंतःकरण की


बुद्धि कहा जाता है जो पुरुष
सर्वत्र स्नेह रहित हुआ उस उस


किए हुए अंतःकरण वाला साधक अपने
वश में की हुई राग द्वेष से रहित


उत्पन्न होता है क्रोध से अत्यंत
मूल भाव उत्पन्न हो जाता है मूल


पुरुष की उन विषयों में आसक्ति
हो जाती है आसक्ति से उन विषयों


ध्यान में बैठे क्योंकि जिस
पुरुष के इन्द्रियाँ वश में होती


द्वेष करता है उसकी बुद्धि स्थिर
है और कछुआ सब ओर से अपने अंगों


उद्वेग नहीं होता सुखों की
प्राप्ति में जो सर्वथा निःस्पृह

प्रज्ञा कहा जाता है दुखों
प्राप्ति होने पर जिसके मन में


रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं
होती इस स्थित प्रज्ञा पुरुष की


को भी बलात्कार हर लेती है इसलिए
साधक को चाहिए कि वह उन संपूर्ण


स्वभाव वाली इन्द्रियाँ यत्न
करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन

ऐसा समझना चाहिए इंद्रियों के
द्वारा विषयों को ग्रहण ना करने


आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट
रहता है उस काल में वह स्थित


ठहर जाएगी तब तू योग को प्राप्त
हो जाएगा अर्थात तेरा परमात्मा


भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो
जाएगा भांति भांति के वचनों को

देता है अर्थात उनसे मुक्त हो
जाता है इससे समत्व रूप योग में


लग जा यह समत्व रूप योग ही
कर्मों में कुशलता है अर्थात


का ही आश्रय ग्रहण कर क्योंकि फल
के हेतु बनने वाले अत्यंत दीन है


तथा सिद्धि और सिद्धि में समान
बुद्धि वाला होकर योग में स्थित

वस्तु परमात्मा में स्थित योग
क्षेम को ना चाहने वाला और


स्वाधीन अंतःकरण वाला हो सब ओर
से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो


गया है जो भोग और ऐश्वर्य में
अत्यंत आसक्त है उन पुरुषों की

से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही
नहीं है ऐसा कहने वाले हैं वे


रूप महान भय से रक्षा कर लेता है
हे Arjuna इस कर्मयोग में


जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू
कर्मों के बंधन को भलीभांति

भी कहेंगे उससे अधिक दुख और क्या
होगा या तो तू युद्ध में मारा

स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप
को प्राप्त होगा तथा सब लोग तेरी

करने योग्य नहीं है अर्थात तुझे
भय नहीं करना चाहिए क्योंकि


और कोई कोई तो सुनकर भी इसको
नहीं जानता हे Arjuna यह आत्मा


तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही
इसे आश्चर्य की भांति सुनता है

में ही प्रकट है फिर ऐसी स्थिति
में क्या शोक करना एक महापुरुष

निश्चित है और मरे हुए का जन्म
निश्चित है इससे भी इस बिना उपाय

नहीं है क्योंकि इस मान्यता के
अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु


को योग्य नहीं है हे Arjuna
संपूर्ण प्राणी जन्म से पहले


अव्यक्त है यह आत्मा अचिंत्य है
और यह आत्मा विकार रहित कहा जाता


है इससे हे अर्जुन इस आत्मा को
जैसा मैंने पहले बताया उस प्रकार

नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा
सकता क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य


त्याग कर दूसरे नए वस्त्रों को
ग्रहण करता है वैसे ही जीव आत्मा


किसको है और कैसे किसको मारता है
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को


में नहीं था तू नहीं था अथवा ये
राजा लोग नहीं थे और ना ऐसा ही


प्राण चले गए हैं उनके लिए और
जिनके प्राण नहीं गए हैं उनके

सेनाओं के बीच में शोक करते हुए
उस Arjuna को हँसते हुए से यह


विषय में मोहित चित्त हुआ मैं
आपसे पूछता हूँ कि जो साधन


है अथवा यह भी नहीं जानते कि
उन्हें हम जीतेंगे या हमको वो

हमारे लिए युद्ध करना और ना करना
इन दोनों में से कौन सा श्रेष्ठ


दोनों ही पूजनीय है इसलिए इन
महानुभाव गुरुजनों को ना मारकर


बोले हे मधुसूदन मैं रणभूमि में
किस प्रकार बाणों से भीष्म


पितामह और द्रोणाचार्य के
विरुद्ध लडूंगा क्योंकि हे वे


ना तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा
आचरित है ना स्वर्ग को वाला है


के प्रति भगवान Madhusudan ने यह
वचन कहा श्री भगवान बोले हे


से नित्य संयोग हो जाएगा Arjun
बोले हे Keshav समाधि में स्थित


जिस काल में तेरी बुद्धि मोह रूप
दलदल को भली भांति पार कर जाएगी


योग से सकाम कर्म अत्यंत ही
निम्न श्रेणी का है इसलिए हे


पहले बताए गए प्रकार से तीनों
गुणों के कार्यरूप समस्त भोगों


क्रियाओं का वर्णन करने है उस
वाणी द्वारा जिनका चित्त हर लिया


सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि
जब परमात्मा में अचल और स्थिर


ना करने में भी आसक्ति ना हो हे
Dhananjay तू आसक्ति को त्याग कर

परमात्मा में निश्चयात्मिका
बुद्धि नहीं होती हे Arjuna वेद


वाणी को कहा करते हैं जो कि जन्म
रूप कर्म फल देने वाली एवं भोग

एवं उनके साधनों का प्रतिपादन
करने वाले है इसलिए तू उन भोगों


अविवेक ही जन इस प्रकार की जिस
पुष्पित अर्थात दिखाऊ शोभायुक्त


बल्कि इस कर्म योग रूप धर्म का
थोड़ा सा भी साधन जन्म मृत्यु


कर्म बंधन से छूटने का उपाय है
क्योंकि सम बुद्धि से युक्त


चलता है श्री भगवान बोले हे
Arjun जिस काल में यह पुरुष मन


उस समय तू हुए और सुनने में आने
वाले इस लोक और परलोक संबंधी सभी


उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो
जा इस प्रकार युद्ध करने से तू

में स्थित संपूर्ण कामनाओं को
भली भांति त्याग देता है और


समबुद्धि युक्त पुरुष पुण्य और
पाप दोनों को इसी लोक में त्याग


अर्थात बीज का नाश नहीं है और
उल्टा फल रूप दोष भी नहीं है

योग के विषय में कही गयी और अब
तू इसको कर्मयोग के विषय में सुन


ज्ञानी जन कर्मों से उत्पन्न
होने वाले फल को त्याग कर जन्म


वह स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे
बोलता है कैसे बैठता है और कैसे


परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिर
बुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है


में कभी नहीं इसलिए तू कर्मों के
फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म


त्याग देगा अर्थात सर्वथा नष्ट
कर डालेगा इस योग में आरंभ का


एवं उनके साधनों में आसक्ति ही
हर्ष शोक आदि से रहित नित्य


कर्म फल के प्रशंसक वेद वाक्यों
में ही प्रीति रखते हैं जिनकी


बुद्धि में स्वर्ग ही परम
प्राप्त वस्तु है और जो स्वर्ग


विवेकहीन सकाम मनुष्यों की
बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों


निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती
है किंतु अस्थिर विचार वाले


तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए
ना ना प्रकार की बहुत सी

पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी
बढ़कर है और जिनकी दृष्टि में तू


सबके शरीरों में सदा ही अवध्य है
इस कारण संपूर्ण प्राणियों के


करके खड़ा हो जा जय पराजय लाभ
हानि और सुख दुःख को समान समझकर


जन्म निश्चित है इससे भी इस बिना
उपाय वाले विषय में तू शोक करने


वाली और अनंत होती है हे जो
भोगों में तन्मय हो रहे हैं जो


पाप को नहीं प्राप्त होगा हे
पार्थ यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञान

लोग तुझे भय के कारण युद्ध से
हटा हुआ मानेंगे तेरे वैरी लोग


लिए तू शोक करने के योग्य नहीं
है तथा धर्म को देखकर भी तू भय


कर्तव्य नहीं है हे पार्थ अपने
आप प्राप्त हुए और खुले हुए

महापुरुष ही इसके तत्व का
आश्चर्य की भांति वर्णन करता है


का राज्य भोगेगा इस कारण हे
Arjuna तू युद्ध के लिए निश्चय

क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध
से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी


किंतु यदि तू इस आत्मा को सदा
जन्मने वाला तथा सदा मरने वाला


जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा
अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी


नित्य सर्वव्यापी अचल स्थिर रहने
वाला और सनातन है यह आत्मा


पहले बहुत सम्मानित होकर अब
लघुता को प्राप्त होगा वे महारथी


रूप बंधन से मुक्त हो निर्विकार
परम पद को प्राप्त हो जाते है


धनंजय तू समुद्धि में ही रक्षा
का उपाय ढूँढ अर्थात बुद्धि योग

तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए
तुझे बहुत से ना कहने योग्य वचन


को तत्व से जानने वाले Brahmin
का समस्त वेदों में उतना ही


जाने पर छोटे जलाशय में मनुष्य
का जितना प्रयोजन होता है Brahma


से जानकर तू शोक करने को योग्य
नहीं है अर्थात शोक करना उचित


आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते
इसको आग नहीं जला सकती इसको जल


प्रयोजन रह जाता है तेरा कर्म
करने में ही अधिकार है उसके फलों

हुआ कर्तव्य कर्मों को कर समत्व
ही योग कहलाता है इस रूप बुद्धि


स्वर्ग के द्वार रूप इस प्रकार
के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय


बहुत काल तक रहने वाली अब कीर्ति
का भी कथन करेंगे और माननीय


वाला समझता है तथा जो इसको मरा
मानता है वे दोनों ही नहीं जानते

ही इस आत्मा को आश्चर्य की भांति
देखता है और वैसे ही दूसरा कोई


लोग ही पाते है किंतु यदि तू इस
धर्म युक्त को नहीं करेगा तो


वाले विषय में तू शोक करने को
योग्य नहीं है क्योंकि इस


मानता हो तो भी हे Mahabhahu तू
इस प्रकार शोक करने को योग्य


नहीं है यह आत्मा अदाह अकलेद्य और
निःसंदेह अशोश्य है तथा यह आत्मा


जाने पर भी यह नहीं मारा जाता हे
प्रथा पुत्र Arjuna जो पुरुष इस


आत्मा को नाश रहित नित्य अजन्मा
और अव्यय जानता है वह पुरुष कैसे


क्योंकि यह वास्तव में ना तो
किसी को मारता है और ना किसी के


पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे
नए शरीरों को प्राप्त होता है इस


है क्योंकि यह अजन्मा नित्य
सनातन और पुरातन है शरीर के मारे


और ना मरता ही है तथा ना यह
उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही


द्वारा मारा जाता है यह आत्मा
किसी काल में भी ना तो जन्मता है


इसलिए हे भरतवंशी Arjuna तू
युद्ध कर जो इस आत्मा को मारने


अप्रमीय नित्य स्वरूप जिव आत्मा
के ये सब शरीर नाशवान कहे गए है

अप्रकट थे और मरने के बाद भी
अप्रकट हो जाने वाले है केवल बीच


मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की
मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का


प्राप्ति होती है उस विषय में
धीर पुरुष मोहित नहीं होता हे


तू उसको जान जिससे यह पूर्ण जगत
दृश्य वर्ग व्याप्त है इस


अविनाशी का विनाश करने में कोई
भी समर्थ नहीं है इस नाश रहित


सत्ता नहीं है और सत्य का अभाव
नहीं है इस प्रकार इन दोनों का


व्याकुल नहीं करते वह मोक्ष के
योग्य होता है असतवस्तु की तो

वाले जिस धीर पुरुष को ये
इन्द्रिय और विषयों के सहयोग


विषयों के संयोग तो उत्पत्ति
विनाशशील और अनित्य है इसलिए हे


वचन बोले श्री बोले हे अर्जुन तू
ना शोक करने योग्य मनुष्यों के


प्राप्त होकर मैं उस उपाय को
देखता हूँ जो मेरी इंद्रियों के


Sanjay बोले हे राजन निद्रा को
जीतने वाले Arjun अंतर्यामी श्री

भारत उनको तू सहन कर क्योंकि हे
श्रेष्ठ दुःख सुख को समान समझने


ही तत्व तत्व ज्ञानी पुरुषों
द्वारा देखा गया है नाश रहित तो


बालकपन जवानी और वृद्धावस्था
होती है वैसे ही अन्य शरीर की


लिए शोक करता है और पंडितों के
से वचनों को कहता है परंतु जिनके

लिए भी पंडित जन शोक नहीं करते
ना तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल


वंशी Dhritarashtra अंतर्यामी
श्री Krishna महाराज दोनों


Kunti पुत्र सर्दी गर्मी और सुख
दुख को देने वाले इंद्री और

है इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।
जैसे जीव आत्मा की इस देह में


Krishna महाराज के प्रति इस
प्रकार कह कर फिर श्री Govinda


भगवान से युद्ध नहीं करूँगा यह
स्पष्ट कह कर चुप हो गए हे भरत

सुखाने वाले शोक को दूर कर सके

आत्मीय Dhritarashtra के पुत्र
हमारे मुकाबले में खड़े हैं


हूँ इसलिए आपके शरण हुए मुझको
शिक्षा दीजिए क्योंकि भूमि में

निष्कंटक धन धान्य संपन्न राज्य
को और देवताओं के स्वामी पने को

निश्चित कल्याणकारक हो वह मेरे
लिए कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य


जीतेंगे और जिनको मारकर हम जीना
भी नहीं चाहते वे ही हमारे


इसलिए कायरता रूप दोष से उपहत
हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के


और काम रूप भोगों को ही तो
भोगूँगा हम यह भी नहीं जानते कि


क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस
लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ


मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न
भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ


प्राप्त हो तुझमें यह उचित नहीं
जान पड़ती हे परम तप ह्रदय की


तुच्छ दुर्बलता को त्याग कर
युद्ध के लिए खड़ा हो जा अर्जुन


और ना कीर्ति को करने वाला ही है
इसलिए हे अर्जुन नपुंसकता को मत


Arjuna तुझे इस असमय में यह मोह
किस हेतु से प्राप्त हुआ क्योंकि


आँसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल
नेत्रों वाले शोक युक्त उस Arjun


अथ द्वितीय अध्याय Sanjay बोले
उस प्रकार करुणा से व्याप्त और है

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