Shrimad Bhagwat Geeta Adhyay 3 | Bhagwat Geeta Saar in Hindi
अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए
एक दूसरे के धर्म से गुण रहित भी
इसलिए हे Arjuna तू पहले
इन्द्रियों को वश में करके इस
प्रकार बुद्धि से पर अर्थात
सूक्ष्म बलवान और अत्यंत श्रेष्ठ
आत्मा को जानकर और बुद्धि के
द्वारा मन को वश में करके हे
में जान जिस प्रकार धुएँ से
अग्नि और मैल से दर्पण ढका जाता
दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में
विघ्न करने वाले महान शत्रु है
करते हुए मेरे इस के अनुसार नहीं
चलते हैं उन मूर्खों को तू
रहित होकर सदा कर्तव्य कर्म को
भली भांति करता रहे क्योंकि
विहित कर्मों में आसक्ति रखने
वाले अज्ञानियों की बुद्धि में
अप्राप्त है तो भी मैं कर्म में
ही बरतता हूँ क्योंकि हे पार्थ
श्रेष्ठ पुरुष जो जो आचरण करता
है अन्य पुरुष भी वैसा वैसा ही
सिद्धि को प्राप्त हुए थे इसलिए
तथा लोक संग्रह को देखते हुए भी
ही कोई प्रयोजन रहता है तथा
संपूर्ण में भी इसका किंचिण
अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ
जान इससे सिद्ध होता है कि
हे Arjuna तू आ शक्ति से रहित
होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भली
प्राणी अन्न से उत्पन्न होते है
अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती
होने वाला है कर्म समुदाय को तू
वेद से उत्पन्न और वेद को
संपूर्ण कर्मों से छूट जाते है
परंतु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण
किए नहीं रहता क्योंकि सारा
मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित
कर्म योग का आचरण करता है वही
श्रेष्ठ है तू शास्त्र विहित
जो मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त
इंद्रियों को हठ पूर्वक ऊपर से
तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता
हुआ भी बलात लगाए हुए की भांति
तू कर्म करने योग्य है अर्थात
तुझे कर्म करना ही उचित है
प्राप्त हो जाऊँ श्री भगवान बोले
हे निष्पाप इस लोक में दो प्रकार
मंदबुद्धि अज्ञानियों को
पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी
के द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित
करके जीवात्मा को मोहित करता है
है तथा जिस प्रकार जैर से गर्भ
ढका रहता है वैसे ही उस काम के
द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढका हुआ
है इंद्रियाँ मन और बुद्धि ये सब
संपूर्ण ज्ञानों में मोहित और
नष्ट हुआ ही समझ सभी प्राणी
भोगों से कभी ना अघाने वाला और
बड़ा पापी है इसको ही तू इस विषय
पर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी
अत्यंत पर है वह आत्मा है इस
बलवान और सूक्ष्म कहते है इन
इन्द्रियों से पर मन है मन से भी
अपना धर्म अति उत्तम है अपने
धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक
बलपूर्वक मार डाल इन्द्रियों को
स्थूल शरीर से पर या श्रेष्ठ
प्रकृति को प्राप्त होते हैं
अर्थात अपने स्वभाव के परवश हुए
स्थित है मनुष्य उन दोनों के वश
में नहीं होना चाहिए क्योंकि वे
कर्म करते हैं ज्ञानवान भी अपनी
प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता
है और दूसरे का धर्म भय को देने
वाला है Arjun बोले हे Krishna
यदि कदाचित मैं सावधान होकर
कर्मों में ना बरतूँ तो बड़ी
है फिर इसमें किसी का हठ क्या
करेगा इंद्रिय इंद्रिय के अर्थ
से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध
है यह बहुत खाने वाला अर्थात
किस से प्रेरित होकर पाप का आचरण
करता है श्री भगवान बोले रजोगुण
में अर्थात प्रत्येक इंद्रिय के
विषय में राग और द्वेष छुपे हुए
स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी
पुरुष को चाहिए कि वह शास्त्र
नष्ट भ्रष्ट हो जाएँ और मैं
संकर्ता का करने वाला हूँ तथा इस
नहीं होता प्रकृति के गुणों से
अत्यंत मोहित हुए मनुष्य गुणों
विचलित ना करें मुझे परमात्मा
में लगे हुए चित्त द्वारा
इसके वास स्थान कहे जाते हैं यह
काम इन मन, बुद्धि और इंद्रियों
द्वारा यह ज्ञान ढका रहता है और
हे Arjuna इस अग्नि के समान कभी
अनुसरण करते हैं इसलिए यदि मैं
कर्म ना करूँ तो ये सब मनुष्य
समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला
बनूँ हे कर्म में आसक्त हुए
ज्ञान और विज्ञान का नाश करने
वाले महान पापी काम को अवश्य ही
हो रहा है ऐसा ज्ञानी मैं करता
हूँ ऐसा कहता है परंतु हे महाभाु
संग्रह करना चाहते हुए उसी
प्रकार कर्म करें परमात्मा के
गुणों द्वारा किए जाते हैं तो भी
जिसका अंतःकरण अहंकार से मोहित
संपूर्ण गुण ही गुणों में बरत
रहे हैं ऐसा समझकर उनमें आसक्त
हानि हो जाए क्योंकि मनुष्य सब
प्रकार से मेरे ही मार्ग का
अज्ञानी जन जिस प्रकार कर्म करते
हैं आसक्ति रहित विद्वान भी लोक
स्वयं शास्त्र विहित समस्त कर्म
भली भांति करते हुए उनसे भी वैसे
ना पूर्ण होने वाले काम रूप
ज्ञानियों के नित्य वैरी के
संताप रहित होकर युद्ध कर जो कोई
मनुष्य दोष दृष्टि से रहित और
मात्र भी स्वार्थ का संबंध नहीं
रहता इसलिए तू निरंतर आसक्ति से
संपूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण
करके आशा रहित ममता रहित और
ब्रह्म अर्थात कर्मों में
अश्रद्धा उत्पन्न ना करें किंतु
में और कर्मों में आसक्ति रहते
हैं उन पूर्णतया ना समझने वाले
उसी के अनुसार बरतने लग जाता है
हे Arjuna मुझे इन तीनों लोकों
आसक्ति से रहित होकर कर्म करता
हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त
श्रद्धा युक्त होकर मेरे इस मत
का सदा अनुसरण करते है वे भी
ही करवाए वास्तव में संपूर्ण
कर्म सब प्रकार से प्रकृति के
गुण विभाग और कर्म विभाग के तत्व
को जानने वाला ज्ञान योगी
में ना तो कुछ कर्तव्य है और ना
कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु
आचरण करते है वह जो कुछ प्रमाण
कर देता है समस्त मनुष्य समुदाय
वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा
आत्मा में ही संतुष्ट हो उसके
लिए कोई कर्तव्य नहीं है उस
महापुरुष का इस विश्व में ना तो
हो जाता है जनक आदि ज्ञानी जन भी
आसक्ति रहित कर्म द्वारा ही परम
कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता
है और ना कर्मों के ना करने से
पुरुष व्यर्थ ही जीता है परंतु
जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने
नहीं करता वह इंद्री के द्वारा
भोगों में रमण करने वाला पाप आयु
हे पार्थ जो पुरुष इस लोक में इस
प्रकार परंपरा से प्रचलित सृष्टि
सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा
सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है
चक्र के अनुकूल नहीं बरतता
अर्थात अपने कर्तव्य का पालन
एक दूसरे को उन्नत करते हुए तुम
लोग परम कल्याण को प्राप्त हो
जाओगे यज्ञ के द्वारा बढ़ाए हुए
देवता तुम लोगों को बिना मांगे
है वह चोर है यज्ञ से बचे हुए
अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष
वृद्धि को प्राप्त हो और यह यज्ञ
तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान
सब पापों से मुक्त हो जाते है और
जो पापी लोग अपना शरीर पोषण करने
भांति कर्तव्य कर्म कर प्रजापति
Brahma ने कल्प के आदि में यज्ञ
ही इच्छित भोग निश्चय ही देते
रहेंगे इस प्रकार उन देवताओं के
करने वाला हो तुम लोग इस यज्ञ
द्वारा देवताओं को उन्नत करो और
है वृष्टि यज्ञ से होती है और
यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न
सहित प्रजाओं को रच कर उनसे कहा
कि तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा
द्वारा दिए हुए भोगों को जो
पुरुष उनके बिना दिए स्वयं भोगता
वे देवता तुम लोगों को उन्नत
करें इस प्रकार निस्वार्थ भाव से
मिथ्याचारी अर्थात दम भी कहा
जाता है हे Arjuna जो पुरुष मन
के लिए ही अन्न पकाते है वे तो
पाप को ही खाते है संपूर्ण
से इंद्रियों को वश में करके अना
सत्य हुआ समस्त इंद्रियों द्वारा
मात्र से सिद्धि यानी सांख्य
निष्ठा को ही प्राप्त होता है
कर्मों में लगा हुआ ही यह मनुष्य
समुदा कर्मों से बंधता है इसलिए
रोक कर मन से उन इन्द्रियों के
विषयों का चिंतन करता रहता है वह
निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी
काल में क्षण मात्र भी बिना कर्म
गुणों द्वारा प्रवश हुआ कर्म
करने के लिए बाध्य किया जाता है
कर्तव्य कर्म कर क्योंकि कर्म ना
करने की अपेक्षा कर्म करना
श्रेष्ठ है तथा कर्म ना करने से
तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध
होगा यज्ञ के निमित्त किए जाने
वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे
के निष्ठा तो ज्ञान योग से और
योगियों के निष्ठा कर्म योग से
यानी योग निष्ठा को प्राप्त होता
है और ना कर्मों के केवल त्याग
होती है मनुष्य ना तो कर्मों का
आरंभ किए बिना निष्कर्मता को
की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही
गयी है उनमें से सांख्य योगियों
मिले हुए से वचनों से मेरी
बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं
इसलिए उस एक बात को निश्चित करके
कहिए जिससे मैं कल्याण को
मान्य है तो फिर हे Keshav मुझे
भयंकर कर्म में क्यों लगाते है
Arjun बोले हे जनार्दन यदि आपको
कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ
अथ तृतीयोध्या यह
महाबाहु तू काम रूप दुर्जय शत्रु
को मार डाल |